हाल के वर्षों में, कपास के उत्पादन और पैदावार में काफी गिरावट आई है, जिससे देश के कृषि और कपड़ा क्षेत्रों के लिए एक चुनौती पैदा हो गई है।
भारत सदियोंसे कपास का प्रमुख उत्पादक रहा है। भारत में कपास को अक्सर “व्हाइट-गोल्ड” कहा जाता है। कपास भारत के कृषि जगत में हमेशा से एक महत्वपूर्ण फसल रही है जो देश की अर्थव्यवस्था में में महत्वपूर्ण योगदान देते आ रही है। भारत के विभिन्न क्षेत्रो में विभिन्न कृषि परिस्थिति के बावजूद कपास दशकों से उगाई जाने वाली बहुमुखी फसल है। यह फसल फाइबर, भोजन और फ़ीड के प्रमुख स्रोत के रूप में कार्य करती है। हालाँकि, हाल के वर्षों में, भारत को अपने कपास उत्पादन को बनाए रखने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिससे कृषि और कपड़ा क्षेत्र प्रभावित हुए हैं।
भारत में कपास का महत्व:
पुरे विश्व के कुल कपास उत्पादन में लगभग 25% योगदान देकर भारत एक वैश्विक नेता के रूप में खड़ा है। इस आर्थिक महत्व ने कपास को “व्हाइट-गोल्ड” उपनाम दिया है। भारत में कपास के खेती 67% वर्षा आधारित क्षेत्रों में और 33% सिंचित क्षेत्रों में वितरित की जाती है, जिसके लिए अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी के साथ गर्म और धूप वाली जलवायु की आवश्यकता होती है।
भारत में कपास की सभी चार प्रजातियों को उगाया जाता है जिनमे Gossypium arboreum and Herbaceum (Asian cotton), G.barbadense (Egyptian cotton) and G. hirsutum (American Upland cotton) शामिल है। दस प्रमुख कपास उगाने वाले राज्यों को तीन कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में बांटा गया है। इन क्षेत्रों में उत्तरी क्षेत्र (पंजाब, हरियाणा, राजस्थान), मध्य क्षेत्र (गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश) और दक्षिणी क्षेत्र (तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु) शामिल हैं।
भारत में कपास तीन उद्देश्यों को पूरा करता है – कपड़े के लिए फाइबर, खाना पकाने के लिए तेल और पशुओं के लिए प्रोटीन युक्त चारा। यह बहुउद्देशीय प्रकृति भारत के कपड़ा उद्योग, पाक पद्धतियों और पशुपालन में महत्वपूर्ण योगदान देती है।
नारियल की तुलना में कपास एक तिगुना महत्त्व है – फाइबर, भोजन और चारा प्रदान करना। सफ़ेद रोएंदार फ़ाइबर, जो कच्चे बिना छने हुए कपास का 36% है, कपड़ा उद्योग के लिए एक प्राथमिक स्रोत है, जो भारत के कुल कपड़ा फ़ाइबर खपत में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रखता है। खाना पकाने के लिए बिनौला तेल (13%) और बिनौला केक, पशुधन और मुर्गीपालन के लिए प्रोटीन युक्त चारा, में योगदान देता है, जिससे बिनौला तेल देश का तीसरा सबसे बड़ा घरेलू उत्पादित वनस्पति तेल बन जाता है।
कपास उत्पादन में वृद्धि और गिरावट:
21वीं सदी की शुरुआत में बीटी (Bacillus thuringiensis) जीन के साथ आनुवंशिक रूप से संशोधित (Genetically Modified) कपास संकर को अपनाने के कारण कपास उत्पादन में वृद्धि देखी गई। अमेरिकी बॉलवॉर्म से निपटने के लिए डिज़ाइन की गई इस तकनीक से लिंट की पैदावार में वृद्धि हुई और अतिरिक्त बिनौला तेल और केक का उत्पादन हुआ।
हाल के वर्षों में कपास के उत्पादन में गिरावट का मुख्य कारण गुलाबी बॉलवर्म (Pectinophora gossypiella) के उद्भव को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह कीट, अपने लार्वा चरण (PBW लार्वा) में, कपास के बीजकोषों पर आक्रमण करता है, जिससे कपास की उपज में कमी आती है और साथ ही उत्पादित कपास की गुणवत्ता में भी गिरावट आती है। पॉलीफैगस अमेरिकन बॉलवॉर्म के विपरीत, गुलाबी बॉलवॉर्म मोनोफैगस है, मुख्य रूप से कपास पर फ़ीड करता है, जिसने बीटी प्रोटीन के खिलाफ प्रतिरोध के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अमेरिकी बॉलवर्म का प्रतिरोध करने के लिए आनुवंशिक रूप से संशोधित बीटी संकरों की निरंतर खेती से अनजाने में गुलाबी बॉलवर्म का अनुकूलन हो गया। समय के साथ, गुलाबी बॉलवर्म आबादी में प्रतिरोध विकसित हो गया, जिसने शुरू में अतिसंवेदनशील अमेरिकी बॉलवर्म की जगह ले ली। इस घटना ने विभिन्न क्षेत्रों में कपास की फसल के लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है।
2014 में, गुजरात राज्य में कपास के फूलों पर गुलाबी बॉलवॉर्म लार्वा के जीवित रहने में असामान्य वृद्धि देखी गई, जो रोपण के 60-70 दिन बाद होती थी। अगले वर्ष, 2015 में, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में गुलाबी बॉलवॉर्म के महत्वपूर्ण संक्रमण की सूचना मिली। मुद्दे की गंभीरता 2021 में बढ़ गई, यहां तक कि पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान तक पहुंच गई, जहां पहली बार कीट का भारी संक्रमण देखा गया। इस व्यापक संक्रमण ने भारत की महत्वपूर्ण कपास फसलों पर गुलाबी बॉलवॉर्म के प्रभाव को प्रबंधित करने और कम करने के लिए प्रभावी रणनीतियों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया है।
गुलाबी बॉलवर्म (पीबीडब्ल्यू) कीट के प्रबंधन की चुनौती का समाधान करने के लिए, पारंपरिक कीटनाशकों ने, हालांकि सीमित सफलता होने के बावजूद, एक नई तकनीक को रास्ता दिया है जिसे “संभोग व्यवधान” के रूप में जाना जाता है। इस नयी तकनीक में गॉसीप्लर(Gossyplure) का प्रयोग शामिल है, जो एक सिंथेटिक फेरोमोन सिग्नलिंग रसायन है जो अपने नर समकक्षों को आकर्षित करने के लिए मादा पीबीडब्ल्यू पतंगों द्वारा प्राकृतिक रूप से स्रावित पदार्थ की नकल करता है। फिर सिंथेटिक फेरोमोन को कपास के खेतों में रणनीतिक रूप से रखे गए पाइपों या ल्यूर में डाला जाता है। यह विधि नर पतंगों को मादाओं का पता लगाने और संभोग गतिविधियों में शामिल होने से रोककर पीबीडब्ल्यू के प्रजनन चक्र को बाधित करती है।
संभोग व्यवधानों को लागू करने के लिए दो नए उत्पाद प्रभावी उपकरण के रूप में उभरे हैं। पहला, PBKnot , इन सिंथेटिक रसायनों से युक्त रस्सियों का उपयोग किया जाता है, जिन्हें रणनीतिक रूप से कपास के पौधों पर रखा जाता है। यह एप्लिकेशन पीबीडब्ल्यू संक्रमण को कम करता है और साथ ही उत्पादन भी बढ़ाता है। दूसरा उत्पाद, SPLAT-PBW, एक विशेष इमल्शन है जिसे सिंथेटिक रसायनों के उपयोग करके PBW संभोग को बाधित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। ये दोनों अनुमोदित उत्पाद कपास की फसलों में गुलाबी बॉलवर्म कीट के प्रबंधन के लिए पर्यावरण-अनुकूल और टिकाऊ तरीकों की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव है।
भारत में कपास क्षेत्र के कीट प्रबंधन के मुद्दे से परे विभिन्न चुनौतियों से जूझ रहा है। एक प्रमुख चिंता कपास की पैदावार में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव है। सिंचाई प्रणालियों तक सीमित पहुंच, मिट्टी की उर्वरता में गिरावट और अनियमित मौसम पैटर्न, जिसमें अप्रत्याशित सूखा या अत्यधिक वर्षा शामिल है, जैसे कारक सामूहिक रूप से देश में कपास उत्पादन को लेकर अनिश्चितता में योगदान करते हैं।
एक और उल्लेखनीय चुनौती कपास उद्योग में छोटे पैमाने के किसानों का प्रभुत्व है। भारत में अधिकांश कपास की खेती इन छोटे किसानों द्वारा की जाती है जो अक्सर पारंपरिक कृषि पद्धतियों पर निर्भर रहते हैं। आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकियों तक उनकी सीमित पहुंच कपास की खेती की समग्र दक्षता और उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
इसके अतिरिक्त, एक महत्वपूर्ण मुद्दा जो सीमित बाजार पहुंच है जिसका सामान भारत में कई कपास उत्पादकों कारन पड़ता है। इन किसानों को अक्सर बाज़ारों तक पहुंचने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है और वे बिचौलियों को कम दरों पर अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर होते हैं, जिससे उनकी आय और कपास की खेती की समग्र आर्थिक व्यवहार्यता प्रभावित होती है।
इन चुनौतियों से निपटने और भारतीय कपास क्षेत्र के लिए अधिक टिकाऊ रास्ता तैयार करने के लिए कई रणनीतियों की सिफारिश की गई है। एकीकृत कीट प्रबंधन (Integrated Pest Management) महत्वपूर्ण है, जिसमें ऐसी रणनीतियों की वकालत की जाती है जिनमें कीटों का प्रभावी ढंग से प्रबंधन करते हुए कीटनाशकों पर निर्भरता को कम करने के लिए प्राकृतिक नियंत्रण, जाल फसलों और लाभकारी कीड़ों को शामिल किया जाता है।
इसके अलावा, समुदाय-आधारित बीज बैंकों (seed banks) की स्थापना एक महत्वपूर्ण पहल के रूप में उभरती है। ये seed banks, सामुदायिक स्तर पर, पारंपरिक कपास बीज किस्मों को संरक्षित और साझा कर सकते हैं, जिससे आनुवंशिक विविधता संरक्षित होगी और उच्च उपज देने वाली किस्मों की खेती को बढ़ावा मिलेगा।
Digital innovation बाजार संबंधी चुनौतियों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। बाजार लिंकेज प्लेटफार्मों की शुरूआत कपास किसानों को खरीदारों और कपड़ा निर्माताओं से सीधे जोड़ सकती है। जिससे बिचौलियों की भागीदारी को कम होगी, उत्पादकों के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित होंगे और अधिक पारदर्शी और न्यायसंगत बाज़ार को बढ़ावा देने में मदत होगी।
अंत में, स्थानीय कपास प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना को बढ़ावा देना जो स्थानीय स्तर पर कपास के रेशों को साफ, और संसाधित कर सकती हैं, जिससे न केवल कपास आपूर्ति श्रृंखला में मूल्य जोड़ने में मदत मिलेगी बल्कि समुदाय के भीतर रोजगार के अवसर भी पैदा हो सकते हैं।
अंत में, कपास क्षेत्र में बहुमुखी चुनौतियों से निपटने के लिए एक व्यापक और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें स्थायी कृषि पद्धतियों, सामुदायिक सशक्तिकरण, तकनीकी एकीकरण और बाजार सुधारों का संयोजन हो।